गुफ्तुगू कुछ ऐसी हुई
की हम जान तो गए
पर समझ नहीं पाए
शिकायतों के चिठे में
कुछ ऐसे खो गए
हाले दिल इस महफिल मैं
अपना ही भूल गए
इस शोर की ढलती हुई ख़ामोशी मैं
एक पहचानी सी आहत हुई
मुर्शीद मेरा मुझसे आके मिले
सही और गलत के पार
एक शहर का पता दिया
जहाँ ना मैं था ना तुम
बस रू थी और रूबरू था
सब मेरे मुर्शीद मैं घुल रहा था
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